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आओ समकालीन बनें / अवनीश त्रिपाठी
Kavita Kosh से
चुभन
बहुत है वर्तमान में
कुछ विमर्श की बातें हों अब,
तर्क-वितर्कों
से पीड़ित हम
आओ समकालीन बनें।
सोच हमारी
नहीं बदलती
अरसा पहलेवाली है,
अंतिम
सोच विचारों वाली
क्षैतिज कार्य प्रणाली है।
वर्तमान
को खूब संजोया
निश्छल होते अनुरागों ने,
जो यथार्थ
की धुन बजवाये
आओ ऐसी बीन बनें।।
नैसर्गिकता
खँडहर जैसी
अवशेषी दहलीजों पर,
रेखाएँ
सीमायें-खाँचे
हर घावों में नश्तर,
कथ्यों को
प्रामाणिक कर दें
गढ़ दें अब अक्षर-अक्षर,
अंधकूप से
बाहर निकलें
थोड़ा और नवीन बनें।
घटनाओं
से जुड़कर ही
तारीखें बदलीं जाएं,
मुखड़े पर
मुखड़े को रखकर
तस्वीरें खींचीं जाएं,
कथनी करनी
कूटनीति से
शब्द हो रहे घायल,
दर्द समझकर
मुँह लटका लें
आओ कुछ ग़मगीन बनें।