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आओ सोचे हमने आब तक / विजय वाते
Kavita Kosh से
आओ सोचे हमने आब तक, किसको क्या-क्या बाँटा।
हमने कुछ दुख-दर्द बटाए या बस सन्नाटा बाँटा।
बाँट-चूट कर रोटी, सब्जी, खाना जिसने सिखलाया,
माँ तब किसके हिस्से आई, था जब दरवाज़ा बाँटा।
आग लगी ठीक शहर में जब-जब, गली मुहल्ले थे भूखे,
तब हमने आगी ही बाँटी, या थोड़ा आटा बाँटा।
कुछ सपने घर में पलते थे, कुछ आए डोली के संग,
सास-बहू, ननदी-भाभी ने क्यों घर का चूल्हा बाँटा।
नदियाँ-नाले, झील, समन्दर, ताल-तलैया का पानी,
किसने बाँटा, हमने 'वाते' ख़ुद अपना कुनबा बाँटा।