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आओ हम तुम ऐसी नगरी में / देवी नांगरानी

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आओ हम तुम ऐसी नगरी में नया इक घर बनाएँ
हों जहाँ के लोग ज़िन्दा, ज़िन्दा उनकी भावनाएँ

थरथराते होंठ मेरे कुछ कहें, कुछ कह न पाएँ
सुनते आए हम तो लोगों से कई ऐसी कथाएँ

दिल ही दिल में आज़माने की तमन्ना छोड़ कर भी
आइने से असलियत चहरों की हम कैसे छुपाएँ

क्यों लगाया बेबसों की उन कतारों में मुझे भी
सह नहीं पाता है दिल देखूँ जो उनकी वेदनाएँ

सोच के अंकुर जो फूटे हैं ख़यालों में अभी
शब्द के सुर ताल पर नाचें हैं मेरी भावनाएँ

गीत जो गहराइयों में मैंने खोकर पा लिया था
गूँज उसकी घेरे मुझको ऐसे जैसे अर्चनाएँ

दूर तक ग़म के घरौंदे देखकर घबरा गया दिल
अब ख़ुशी के हीरे-मोती हम कहाँ से ढूँढ लाएँ

कर दिया मायूस क्यों ‘देवी’ को तू ने ज़िन्दगी से
तेरी चौखट पर न जाने कितनी की हैं प्रार्थनाएँ