भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
आओ हम तुम खेल खेलें / रवीन्द्र दास
Kavita Kosh से
आओ हम तुम खेल खेलें
जो मर्ज़ी हो तुम वह बोलो
जो मर्ज़ी हो हम समझेंगे
रोएंगे या गाएंगे
या हँस हँस कर चुप जाएँगे
तुम चाहो तो छू सकते हो
तन को.. मन को... जो मर्ज़ी हो
लेकिन कोई भी कुछ पूछे
समझो खेल ख़त्म हो आया
आओ खेलें ऐसा खेल