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आओ हम धरा को स्वर्ग बना लें / तारा सिंह

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विषमता की धारा मुक्त होकर , धरा पर बहने न पावे
मानवता की चट्टान बनाकर हम इसे यहीं रोक लें
आओ, हम सब मिलकर इस धरती को स्वर्ग बना लें
जाति , वर्ण, गौरव से पीड़ित , भू जन के अंतरमन में
शिल्पी - सी चेतना को जागृत करें, व्यर्थ है पूरब
पश्चिम का दिगभ्रम फैलाना, इससे मानवता हो रही है
खंडित , इनके अन्तर दृष्टिग्यान को हम ज्योतित करें
आओ, हम सब मिलकर इस धरती को स्वर्ग बना लें
नई अनुभूति की खान है नीचे दबी, उसे खोजें
नए स्वर से भरा कोष है ,यहाँ कहीं गड़ा, उसे खोदें
भ्रांति होगी छाया के हाथों बिककर , गगन में जाना
फूलों का सौरभ वायु संग जो उड़ रहा नभ में, वह
यहीं धरती की छाती से लिपटकर सोता है रातों में
कहते हैं जिसको माया नहीं मिलती, उसे राम मिलते हैं
हम उस सौरभ के पीछे न भागकर उस फूल को उगाएँ
जिसे लोग स्वप्न में देह धरकर,सीने से लिपटाए रखते हैं
विश्व मानव का रुद्ध हृदय, स्वर्गलय से है वंचित
प्रीति लहरों से उद्वेलित न होकर,निज रुचि से है आन्दोलित
मानव उर से प्रीति, विनय आदर सभी विदा हो गए हैं
भू का दूर्वाचल, पाप तप से उगता ज्वालाओं में रहता हरित
हमें ऐसे जीर्ण प्राणों के छिन्न वसनों को उतारकर
नव वसनों से करना होगा उन्हें विभूषित , तभी बदलेगा
विषन्न वसुधा का आनन स्वर्ग बनेगी धरती,राग दोषों से
चिर मथित मानव इच्छाओं का स्तर - स्तर होगा हर्षित
इस धरा पर रंग तरंगित है, जिस श्री से हम
उस देवी को हृदय असन पर विराजमान करें
कोमलता बढती जिसको छूकर उस देह तनिमा को जानें
कली-कली से इस भू को रँगकर शोभना को करें सुसज्जित
जन - जन के उर - उर से ऐसा सुरभित गंध बहे , जिसे
देख ज्योत्सना रहे विस्मित, तारिकाएँ रहें अचम्भित
विश्व मानव के अंतरमन को प्रीति दर्प दिखाकर
फिर से भू जन की आत्मा को नूतन करना होगा
निष्ठुर इन्द्र के वज्रघात से क्रोधित होकर
प्रलय आह्वान करना ठीक नहीं है,जिसके चरणों में
नत रहता अनिल ,तरंगित उदधि, सूर्य,शशि, गगन
हम ऐसे त्रिया का क्षीरोज्ज्वल पीकर बड़े हुए हैं
आतप ताप की हलचल में यह धरा लुप्त हो जाए
ऐसा करना ठीक नहीं है, जिससे कि दैन्य दूरित
तमस घन हट जाए, प्रभात स्वर्ण जड़ित हो विश्व
का प्रांगण , लदा रहे फूलों से भू मानव के
जीवन की कोमल डाली, ऐसा कोई काम करें
जिस जगती का चित्र प्रकृति के कण- कण से होता मुखरित
वहाँ की मिट्टी स्वतः शत-शत रंगों से क्यों न रहे कुसुमित
धरा पर प्रेम, प्यार, करुणा का सागर स्वयं रहे तरंगित
काँटों का जग सद्यफुटित सरोज मुख से रहे शोभित
जिससे तमस हृदय ,अलोक स्रोत को पा सके
अत्म का संचरण ,मन को करे आलोकित, और यह
धरती देवताओं के स्वर्ग खंड –सा हो सके प्रतिष्ठित
तभी आतप ताप से बंधा मानव का प्राण सुवासित होगा
रक्त पंकिल धरा की मिट्टी से सौंधी-सौंधी महक आएगी
ज्वाल वसन कुसुमों के तन पर रंग प्राण लहराएगा
देव- शासित लोक गगन से अमर संगीत,धरा पर उतरेगा
यह धरती जो सिंधु ज्वार सी स्तंभित है इसमें
आनन्द, उल्लास तरंगित होगा, यहाँ भी मानव भविष्य
का चित्र दर्पण की छाया – सी पहले से चित्रित रहेगा