Last modified on 25 अक्टूबर 2010, at 10:42

आकांक्षा / गिरिराज शरण अग्रवाल

मैं तुम्हारी आँखों में
झाँकूँ
और झाँकता ही रहूँ ।

मैं
तुम्हारी आँखों की गहराई
नापूँ
और नापता ही रहूँ ।

तुम्हारे आकाश को
बाँहों में अपनी
भर लूँ
और भरता ही रहूँ ।

तुम्हारे सपनों में
इंद्रधनुषी रंग घोलूँ
और घोलता ही रहूँ ।

तुम्हारी साँसों में
जीभर महकूँ
और महकता ही रहूँ।
तुम्हारे मादक स्पर्श को
प्यार से सहेज लूँ
और सहेजता ही रहूँ ।

तुम्हारे संकेतों को
अनायास समझ लूँ
और समझता ही रहूँ ।