आकांक्षा / मधु संधु
इतिहास की क़ब्रों में दबे हुए
पृष्ठ कहते हैं कि
जन्म होते ही मेरा
गला दबा देते थे।
पलंग के पाए तले रखकर
पितृसत्ताक के सत्ताधारी
उस लोक पहुँचा देते थे।
एक ज़र्रा हशीश
तिल भर अफीम
या
एक कण विष देकर
मेरा इहलोक सँवार देते थे
क्योंकि वे जानते थे
कि
इहलोक दुखों से भरा है
और
मेरा कोमल मन
कोमल गात
उन दुखों से जूझ नहीं पाएगा।
वे जानते थे
कि मैं
पुराण-कथाओं की तरह
अपने सत्यवान के लिए
चार सौ साल की
उम्र नहीं मांग पाऊंगी
इसीलिए मुझे
धधकती चिता में
आत्मदाह करना होगा।
उन्हें पता था
कि धरती की बेटियाँ
सीता माता की तरह
अग्नि परीक्षा नहीं दे सकती।
मेरे संरक्षक और शुभचिंतक
इस तरह मुझे
स्वर्गारोहण का
सुरक्षा कवच देते थे।
ऐसे सुरक्षा कवच
आज भी
मिल रहे हैं मुझे।
वैज्ञानिक उपलब्धियों ने
भूण-हत्याओं का आविष्कार करके
मुझे पितृसत्ताक दुखों के
उस पार जा फेंका है।
आकांक्षाएँ
युगों से पूरे विश्व में
पूरी होती रही हैं मेरी
पर
पिता, भाई, पुत्र के माध्यम से।
लेकिन
आज मैंने उनके माध्यम से
उच्चाकांक्षाओं की पूर्ति के
स्वप्न देखने बंद कर दिए हैं।
चिर दमित आकांक्षाएँ पनपती हैं-
मेरी सोलह वर्षीय आकांक्षा है
कि
मैं फेमिना से
मिस इंडिया चुनी जाऊँ।
मिस वर्ल्ड और मिस यूनीवर्स बनकर
विज्ञापन की दुनिया में
परचम उड़ाऊँ।
केवल चैनल्ज की दिव्य दृष्टि से
हर अनजाने कोने में पहचानी जाऊँ।
मेरे अंदर बैठी
वैज्ञानिक स्त्री की आकांक्षा है
कि सुनीता विलियम्स बन
सातवें आसमान की
बुलंदियों को छू आऊँ।
या फिर
राजकुमारी डायना बन
गरीबों अनाथों को कपड़े बाँटूँ।
हिलेरी क्लिंटन बन
देश-विदेश की सैर करूँ।
इंदिरा गांधी बन
राजनीति का संचालन करूँ।
बिजनेस मैगनेट बन
विश्व बाजार की ऊठक-बैठक कराऊँ।
सतरंगे स्वप्न पूरे करके भी
मेरे पैर
धरती पर
जमे रहें
जमे रहें...