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आकाशदीप / अमरेन्द्र
Kavita Kosh से
पथ पर है गतिमान देश; क्यों रुकते भारतवासी
हम वेदों के पुत्रा वही हैं, भैरव सुर में गाओ
बार-बार उपनिषद ज्ञान से दुनिया को नहलाओ
यात्रा पर कैसे निकलोगे मुँह पर लिए उदासी ।
कहो सृष्टि से हमने गिनना तारों को सिखलाया
वाणी को संगीत दिया, दी शांति मृत्यु को हमने
बादल बन बरसा मरु-मरु में, ग्रीष्म लगा जब जमने
ब्रह्म-जीव सब एक साँस से बंधे हुए, दिखलाया ।
हमने ही यह कहा, विश्व-वसुधा ही एक कुटुम है
जिसको दुनिया आज रट रही अपनी खोज बता कर
अब तो गीत बने हैं, गीता का उपदेश सुना कर
दान-धर्म के विश्व-भाल पर मेरा ही कुमकुम है ।
नभ पर द्वीप रखो, तो सागर पर तुम सेतु बनाओ
पार लगे जलयान उछल कर, ऐसी ज्वार उठाओ ।