भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
आकाश, मैं तेरी ऊँचाई छूना चाहती हूँ / सुमति बूधन
Kavita Kosh से
आकाश , मैं तेरी ऊँचाई छूना चाहती हूँ।
अपनी साधना को साधकर ,
अपनी भावना को माँजकर ,
अपनी कामना को जीतकर ।
तेरी शून्यता में समायी है
ब्रह्मांड की सम्पूर्णता,
तेरी ऊँचाई से सजती है
धरती की सुन्दरता ।
आकाश,मैं तेरा हिस्सा बनना चाहती हूँ
अपनी सीमाओं में बँधकर,
अपनी दिव्यताओं को निखारकर ।
अपने सीने में बसाते सूरज की गरमी को,
चाँद की चाँदनी को,
सितारों की झिलमिलाहटों को,
काले-काले मेघों के अम्बारों को,
नक्षत्रों के
बन्घनों को ,
अपनी शून्यता में छिपाये रखता तू
सृष्टि-प्रलय के क्रम को ।
आकाश, मैं इस क्रम को देखना चाहती हूँ
अपनी मर्यादाओं को पालकर ।