भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
आकाश भी अब उसको पराया-सा लगे है / ज्ञान प्रकाश विवेक
Kavita Kosh से
आकाश भी अब उसको पराया-सा लगे है
इक परकटा पक्षी है कि सहमा-सा लगे है
बनवाई है जिस शख़्स ने ये उँची इमारत
अब इसकी बुलन्दी में वो अदना-सा लगे है
जिसमें न हो शब्दों का कोई भीड़-भड़ाका
सादा-सा नमस्कार वो अच्छा-सा लगे है
पर खोल के बैठा है जो आँगन में परिन्दा
वीरान-से घर में मुझे अपना-सा लगे है
वो कृष्ण है शायद कि जो बैठा है महल में
जो द्वार के बाहर है सुदामा-सा लगे है.