आकाश में उड़ रही थी एक काली घटा
आग से उठते काले धुएँ की तरह
राह पुरानी भी चुप थी इतनी
कि शांति फैली थी वहाँ घनी
सुनाई दे रही थी बस उसकी महान् आवाज़
ख़ुदा कहें जिसे या कहें सरताज
आवाज़ वह धरती पर डरावनी लगती थी
साफ़ थी इतनी कि भयावनी लगती थी
पृथ्वी पर सुनी नहीं गई
ऐसी आवाज़ कभी भी
सिर्फ़ गूँगे बहरे ही सुन सकते हैं
जिसे कल, आज, अभी भी
सूरज जल रहा था,
जैसे लटका हुआ था छींका
मटमैली हरी घास का रंग
हो गया था फीका
स्तेपी<ref>सैकड़ों किलोमीटर तक फैले वृक्षविहीन मैदान </ref> में निःशब्द रई के
दाने झर रहे थे
गर्म मिट्टी के ढेलों पर
कन-कन कर बरस रहे थे
खेतों में सुन पड़ती थीं
नन्हीं चिड़ियों की कूँजें
दुबले, सुस्त, श्वेत पाखी,
ये थे कौओं के चूजे
उन जुते हुए खेतों की
मिट्टी थी रेतीली
मौसम में बहुत उमस थी,
मन की हालत थी ढीली
दूर वहाँ दक्षिण में,
उमड़ रही थीं काली घटाएँ
वृक्षों के चरणों में आ झुकी थीं,
उनकी ही शाखाएँ
रुपहली यह दुनिया अपने
अनिश्चित मन, हिय से
काँप रही थी बेकल, प्रभु के
भावी क्रोध के भय से
(19 अगस्त 1912)
मूल रूसी भाषा से अनुवाद : अनिल जनविजय