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आकाश में घुलते-घुलते / उदयन वाजपेयी
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आकाश में घुलते-घुलते
पूरी तरह ग़ायब हो गया
चन्द्रमा
अँधेरे में
खाली मकान में न जाने कब से
मेज़ के पीछे छिपा है एक बच्चा कि
कोई उसे खेल-खेल में ढूँढे
छत पर खड़ी हो वह देखती है
दूर मकान में चमकती एक खिड़की
और सोचती है :
विरह प्रेम का अनन्त है ।