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आकुल-अन्तर / महेन्द्र भटनागर

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आज है बेचैन मन
कुछ बात करने को प्रिये !
एकरस इतनी विलंबित
मौनता अब हो रही है भार,
जब सतत लहरा रहा शीतल
रुपहला स्निग्ध पारावार,

हो रहा बेचैन मन
उन्मुक्त मिलने को प्रिये !

शुष्क नीरस सृष्टि में जब
छा गये चारों तरफ़ नव बौर,
भाग्य में मेरे अरे केवल
लिखा है क्या अकेला ठौर ?

हो रहा बेचैन मन
कुछ भेद कहने को प्रिये !