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आकुल मेरा प्राण है / शिवदेव शर्मा 'पथिक'

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मैं तेरी सुधि में उन्मत्त हूँ,
आकुल मेरा प्राण है।

मेरे पथ पर निर्मम निष्ठुर,
जगती का व्यवधान है।

तुम जीवन की आशा मेरी,
लम्बी मेरी राह है।

मैं घायल जीना क्या जानूँ,
मर मिटने की चाह है।

तुम हो नीले नभ का पत्थर,
मैं सागर का ज्वार हूँ।

रह-रह रो-रो मिलनातुर हो,
करता तुमसे प्यार हूँ।

मन में युग से सोयी-खोयी,
तेरी ही मुस्कान है।

मैं भोले पंछी की तड़पन,
तेरी चितवन वाण है।

प्यार संजोया करता हूँ मैं,
मन में तेरी आस रे!

तुम प्यासे को क्या पहिचानो,
युग-युग की है प्यास रे!

तुम कोकिल हो मधुमासों की,
यह जीवन पतझाड़ है।

पल-पल में जल-जल जाने को,
तुमसे मेरा प्यार है।

ओ! निर्मम रह-रह कर मन में,
बस तेरा आह्वान है।

मैंने अभिशापों को पाला,
तू मंगल वरदान है।

मैं जीवन की पगडंडी पर,
चलता खाली हाथ रे!

तुम आ जाते तो क्या होता,
देने मेरा साथ रे!

मैं सरिता का अल्हड़पन हूँ,
तुम मेरे संसार हो।

मैं नाविक! नौका क्या खेऊँ,
तुम मेरी पतवार हो।

मैं कैसे कह दूँ यह मेरी,
पीड़ा का अपमान है।

प्रणय-डगर पर जल-जल जाना,
ही मेरा अरमान है।