आकृतियाँ... / पंखुरी सिन्हा

वह जाग रही थी,
जैसे बम-विस्फोटों के अलग-अलग स्थानों पर,
या अलग-अलग बमों के फटने से,
एक देश का आज, दूसरे देश का कल,
ख़बरें शुरू हो रही थीं,
देशों के नाम से,
या नागरिकताओं के नाम से,

नागरिकताओं की हस्ती को लेकर लड़ाई थी,
भाषाओं की हस्ती को लेकर भी,
सबकुछ के वर्गीकरण का एक नया खेल था,
लोगों के ड्राइंग-रूम्स में अजीब किस्म की बहसें थीं,
कि किस नागरिकता के लोग, कैसे जी सकते थे?

फिर ये बातें धर्म तक पहुँचती थीं,
और मामला संगीन होता था,
जाति-जनजाति तक पहुँचते-पहुँचते,
और भी संगीन,

किसको कितनी आज़ादी थी, कौन तय कर रहा था ?
कैसी छूट थी किसे, कहाँ तक पहुँचने के अवसर किन्हें ?

इस पृष्ठ को बेहतर बनाने में मदद करें!

Keep track of this page and all changes to it.