रेत की हथेली पर
गीत नहीं बोएँगे !
ढहते हैं सपनों के
ताजमहल, ढह लेंगे
कुहरे को लिपटाकर
सूरज-से दह लेंगे
पलकों पर मोती का
भार नहीं ढोएँगे !
आदमक़द शीशों में
धुंधलाई तसवीरें
दरक-दरक जाती हैं
बिम्बों की प्राचीरें
आकृतियाँ अपनी अब
और नहीं खोएँगे !
आभासित होता जो
खड़ा हुआ गंगाजल
इसके भीतर कितनी
भरी हुई है दलदल
इस गंदले पानी में
शंख नहीं धोएँगे !