भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

आक / सरोज परमार

Kavita Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज


होंठों पर बैलाडोना की चिप्पी लगाए
उँगलियों की पोरों को माथे में गड़ाए
चल रहे हैं-वहीं
जहाँ शोर है,घुटन है
और है सम्बन्धों की सीलन।
इस धुँधुआते ढेर से शायद
अभी-अभी एक कटु सत्य जम ले
आक के पौधे-सा।
जिस पर
आम आदमी की नज़र नहीं पड़ती