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आखरी कलाम / पृष्ठ 5 / मलिक मोहम्मद जायसी

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मुखपृष्ठ: आखरी कलाम / मलिक मोहम्मद जायसी

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पुनि रसूल तलफत तहँ जैहैं । बीबिहि बार बार समुझैहैं ॥
बीबी कहब, `घाम कत सहहू ? कस ना बैठि छाहँ महँ रहहू ? ॥
`सब पैगंबर बैठे छाहाँ । तुम कस तपौ बजर अस माहाँ ? ॥
कहब रसूल छाँह का बैठौं ? उमत लागि धूपहु नहिं बैठौं ॥
`तिन्ह सब बाँधि घाम महँ मेले । का भा मोरे छाहँ अकेले ॥
`तुम्हरे कोह सबहि जो मरै । समुझहु जीउ, तबहि निस्तरै ॥
जो मोहिं चहौ निवारहु कोहू । तब बिधि करै उमत पर छोहू'॥

बहु दुख देखि पिता कर, बीबी समुझा जीउ ।
जाइ मुहम्मद बिनवा , ठाढ पाग कै गीउ ॥41॥

तब रसूल के कहें भइ माया । जिन चिंता मानहु, भइ दाया ॥
जौ बीबी अबहूँ रिसियाई । सबहि उमत-सिर आइ बिसाई ॥
अब फातिम कहँ बेगि बोलावहु । देइ दाद तौ उमत छोडावहु ॥
फातिम आइ कै पार लगावा । धरि यजीद दोजख महँ गवा ॥
अंत कहा, धरि जान से मारै । जिउ देइ देइ पुनि लौटि पछारै ॥
तस मारब जेहि भुइँ गडि जाई । खन खन मारै लौटि जियाई ॥
बजर-अगिनि जारब कै छारा । लौटि दहै जस दहै लोहारा ॥

मारि मारि घिसियावैं, धरि दोजख महँ देब ।
जेतनी सिस्टि मुहम्मद सबहि पुकारै लेब ॥42॥

पुनि सब उम्मत लेब बुलाई । हरू गरू लागब बहिराई ॥
निरखि रहौती काढब छानी । करब निनार दूध औ पानी ॥
बाप क पूत, न पूत क बापू । पाइहि तहाँ न पुन्नि न पापू ॥
आपहि आप आइकै परी । कोउ न कोउ क धरहरि करी ॥
कागज काढि लेब सब लखा । दुख सुख जो पिरथिवी महँ देखा ॥
पुन्नि पियाला लेखा माँगब । उतर देत उन पानी खाँगब ॥
नैन क देखा स्रवन क सुना । कहब, करब, औगुन औ गुना ॥

हाथ, पाँव, मुख, काया, स्रवन, सीस औ आँखि ।
पाप न चपै `मुहम्मद' आइ भरैं सब साखि ॥43॥

देह क रोवाँ बैरी होइहैं । बजर-बिया एहि जीउ के बोइहैं ॥
पाप पुन्नि निरमल कै धोउब । राखब पुन्नि, पाप सब खोउब ॥
पुनि कौसर पठउब अन्हवावै । जहाँ कया निरमल सब पावै ॥
बुडकी देब देह-सुख लागी । पलुहब उठि, सोवत अस जागी ॥
खोरि नहाइ धोइ सब दुंदू । होइ निकरहिं पूनिउ कै चंदू ॥
सब क सरीर सुबास बसाई । चंदन कै अस घानी आई ॥
झूठे सबहि, आप पुनि साँचे । सबहि नबी के पाछे बाँचे ॥

नबिहि छाडि होइहि सबहि बारह बरस क राह ।
सब अस जान `मुहम्मद' होइ बरस कै राह ॥44॥

पुनि रसूल नेवतब जेवनारा । बहुत भाँति होइहि परकारा ॥
ना अस देखा, ना अस सुना । जौ सरहौं तौ है दस गुना ॥
पुनि अनेक बिस्तर तहँ डासब । बास सुबास कपूर से बासब ॥
होइ आयसु जौ बेगि बोलाउब । औ सब उमत साथ लेइ आउब ॥
जिबरईल आगे होइ जइहैं । पग डारै कहँ आयसु देइहैं ॥
चलब रसूल उमत लेइ साथा । परग परग पर नावत माथा ॥
`आवहु भीतर' बेगि बोलाउब । बिस्तर जहाँ तहाँ बैठाउब ॥

झारि उमत सब बैठी जोरि कै एकै पाँति ।
सब के माँझ मुहम्मद, जानौ दुलह बराति ॥45 ॥

पुनि जेंवन कहँ आवै लागैं । सब के आगे धरत न खाँगै ॥
भाँति भाँति कर देखब थारा । जानब ना दहुँ कौन प्रकारा ॥
पुनि फरमाउब आप गोसाईं । बहुतै दुख देखेउ दुनियाईं ॥
हाथन्ह से जेंवन मुख डारत । जीभ पसारत दाँत उघारत ॥
कूँचत खात बहुत दुख पाएउ । तहँ ऐसै जेवनार जेवाँएउँ ॥
अब जिन लौटि कस्ट जिउ करहू । सुख सवाद औ इंद्री भरहू ॥
पाँच भूत आतमा सेराई । बैठि अघाउ, उदर ना भाई ॥

ऐस करब पहुनाई, तब होइहि संतोख ।
दुखी न होहु मुहम्मद, पोखि लेहु फुर पोख ॥46॥

हाथन्ह से केहु कौर न लेई । जोइ चाह मुख पैठे सोई ॥
दाँत,जीभ,मुख किछु न डोलाउब । जस जस रुचिहै तस तस खाउब ॥
जैस अन्न बिनु कूँचै रूचै । तैस सिठाइ जौ कोऊ कूँचै ॥
एक एक परकार जो आए । सत्तर सत्तर स्वाद सो पाए ॥
जहँ जहँ जाइ के परै जुडाई । इच्छा पूजै, खाइ अघाई ॥
अनचखे रअते फर चाखा । सब अस लेइ अपरस रस चाखा ॥
जलम जलम कै भूख बुझाई । भोजन केरे साथै जाई ॥

जेंवन अँचवन होइ पुनि, पुनि होइहि खिलवान ।
अमृत-भरा कटोरा पियहु मुहम्मद पान ॥47॥

एक तौ अमृत बास कपूरा । तेहि कहँ कहाँ शराब-तहूरा ॥
लागब भरि भरि देइ कटोरा । पुरुष ज्ञान अस भरै महोरा ॥
ओहि कै मिठाइ माति एक दाऊँ । जलम न मानव होइ अब काहूँ ॥
सचु-मतवार रहब होइ सदा । रहसै कूदै सदा सरबदा ॥
कबहुँ न खोवै जलम खुमारी । जनौ बिहान उठै भरि बारी ॥
ततखन बासि बासि जनु घाला । घरी घरी जस लेब पियाला ॥
सबहि क भा मन सो मद पिया । नव औतार भवा औ जिया ॥

फिरै तँबोल, मया से कहब `अपुन लेइ खाहु ।
भा परसाद, मुहम्मद, उठि बिहिस्त महँ जाहु ' ॥48॥

कहब रसूल `बिहिस्त न जाऊँ । जौ लगि दरस तुम्हार न पाऊँ ।
उघर न नैन तुमहिं बिनु देखे । सबहि अँविरथा मोरे लेखे ॥
तौ लै केहु बैकुंठ न जाई । जझौ लै तुम्हरा दरस न पाई ॥
करु दीदार, देखौं मै तोहीं । तौ पै जीउ जाइ सुख मोहीं ॥
देखें दरस नैन भरि लेऊँ । सीस नाइ पै भुइँ कहँ देऊँ ॥
जलम मोर लागा सब थारा । पलुहै जीउ जो गीउ उभारा ॥
होइ दयाल करु दिस्टि फिरावा । तोहि छाँडि मोहि और न भावा ॥

सीस पायँ भुइँ लावौं, जौ देखौं तोहि आँखि ।
दरसन देखि मुहम्मद , हिये भरौं तोरि साखि ॥49॥

सुनहु रसूल ! होत फरमानू । बोल तुम्हार कीन्ह परमानू ॥
तहाँ हुतेउँ जहँ हुतेउ न ठाऊँ । पहिले रचेउँ मुहम्मद नाऊँ ॥
तुम बिनु अबहुँ न परगट कीन्हेंउँ । सहस अठारह कहँ जिउ दीन्हेउँ ॥
चौदह खँड ऊपर तर राखेउँ । नाद चलाइ भेद बहु भाखेउँ ॥
चार फिरिस्तन बड औतारेउँ । सात खंड बैकुंठ सँवारेउँ ॥
सवा लाख पैगंबर सिरजेउँ । कर करतूति उन्हहि धै बँधेउँ ॥
औरन्ह कर आगे कत लेखा । जेतना सिरजा को ओहि देखा ? ॥

तुम तहँ एता सिरजा, आप कै अंतरहेत ।
देखहु दरस मुम्मद ! आपनि उमत समेत ॥50॥


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