भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
आख़िरी औरत और हम / मोहिनी सिंह
Kavita Kosh से
बहुत फर्क है उस आखिरी औरत में और मुझमें
उतना ही जितना था पहले पुरुष और पहली स्त्री में
उसकी आज़ादी की लड़ाई
जो कहीं नहीं लड़ी जा रही
उसमें हैं अब एक सीढ़ी
और जिसे छेके खड़ी हूँ मैं
और मेरी सहेलियाँ
और है मेरा बढ़ा हुआ हाथ
मेरे आगे खड़े पुरुष की ओर
उसके चूड़ी वाले हाथ नहीं थामते
मेरी घड़ी बंधी "वैक्सड" कलाइयाँ
मैं देख रहीं हूँ ऊपर तानाशाह की गद्दी
ललचाई नज़रों से,
शायद और जल रहीं हूँ उसकी तुष्ट नज़र से,
उसे पता है
लगा रहीं हूँ उसके दरवाजे पर नारे
मांग रही हूँ लोकतंत्र।
और रच रही है वो उसी आखिरी सीढ़ी पर
अपना स्वर्ग
बहुत फर्क है उस आखिरी औरत में और मुझमें।