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आख़िरी नदी / प्रशान्त 'बेबार'

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नक़्शों पे अब सिर्फ़ नीली लकीरें बची हैं
ज़मीं पे जो दरिया थे, वो बीत गए हैं
जो मख़सूस मायने थे सखी गंगा के
सब मिट्टी हो गए, अब सिर्फ़ सूखी सिसकी बहती है

सिंधु-ब्यास तो तभी मिट गयीं, जब सरकारी दौर चला था
नदी बचाओ, नदी बचाओ, हाँ इंसाँ की प्यास बहुत है

नर्मदा गोदावरी जो चाँदनी सी रेंगती थीं सब्ज़ वादियों में,
स्याह हैं अब ! लगता है काले इरादे वालों ने
काले ईमान से सींचा है पैहम

चीख़ते हैं अल्फ़ाज़ कावेरी के
कृष्णा की भी चुप्पी सहम है
कि चलती हूँ सखी, सूखे समंदर से मिलने
यूँ तो मुश्किल मिलन बहुत है,
उसकी भी तो प्यास बहुत है

रात के आसमाँ पे ज़री का काम भी दिखता नहीं अब
हवा में, जहाँ में और इस सीने में, बस धुआँ परस्त है
कहीं-कहीं थोड़ी-थोड़ी छाँव बची थी,
कम्बख़्त उसे भी काट-काट के, अपने 'ड्रॉइंग रूम' ले गए

मुबारक हो नया साल बीस-अट्ठेत्तर तुम्हें
जहाँ काग़ज़ की रंगीन मौत, जेबों में कब्रें भरी हैं
नहीं झरने की आहट कहीं, डूबने तक का एहसास नहीं है

मायूस ज़मीं मूक है, क़यामत की बस आमद है
तुम ज़मीं का ज़ेवर लूट रहे हो, नदियाँ पीने का मद है
बुरा न मानो सच कहती हूँ, तुम इंसाँ की प्यास बहुत है।