आख़िर क्यों? / नीता पोरवाल
खिड़की से चाँद को झाँकते देख
सुरमई पैरहन वाली लड़की
सहम जाती हैं अब!
काँपती नम सी हथेलियों से
अपने चेहरे की गुलाबी परत को
एक अँधेरी दुछत्ती में
धूल अटे अखबार की ढेरी तले
दबा देना चाहती है वो
छुटपन में
इसी चाँद की रौशनी के वक्फों को
गुल्लक में सहेजती
तितलियों के बूटे सजी फ़्रोक पहने
अँधेरी रातो को जुबां दिखा... खिझाती
समंदर में हिलोरे लेते "उसी”
संदली दुधिया अक्स से सहमी
मौजूद हर साजो सामां से अब
पलकें मूँद लेना चाहती है वो...
पिघलती निगाहों से घूरता
होठो को गोल घुमाता
उफ्फ्फ... ये गुलदान भी औरो की तरह...
आज हथेलियों की लकीरों में
अपना वजूद तलाशती
मानो मीलो का सफ़र तय कर हांफती
मन ही मन खौफ़ज़दा सोचती
क्या अहसास और निगाहें भी
चेहरे की रंगत और
पन्ने पर लफ्जों के रूप, आकार देख
अपनी रबायतें भूल
रास्ता भटक जाया करते हैं?
पर क्यों... आखिर क्यों ?