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आख़िर में / अजय कुमार
Kavita Kosh से
					
										
					
					पहाड़ों से  
एक- एक मोड़ 
कोई बस  
जैसे नीचे उतरती  है  
यूँ जिन्दगी मेरी
इन आखिरी सालों से 
गुज़रती है  
कभी मेरे घुटनों का 
तेज  दर्द  
कभी  मेरे 
दोस्त की बीमारी  
जैसे जिन्दगी की रेल
रोज तंग सुरंगों से 
निकलती है  
सिर्फ किताबों का 
रहा है  
अब मेरी 
तनहाई को सहारा 
मगर आँखों की बिनाई 
रोज एक- एक पेंच 
उतरती है 
मैं रोज देखता हूँ  
दिन को चढ़ते-उतरते 
पर मेरी जिंदगी की शाम 
जैसे अब एक रात को 
तकती है 
और सबसे 
जियादा है मुझसे 
इस दिल की दुश्मनी  
इसकी धड़कनें
ख्वाहिश की चिकनी जमीं पर 
अब भी 
फिसलती हैं.......
	
	