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आख़िर मैं क्या करूँ / हरिवंश प्रभात
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आखिर मैं क्या करूँ सहेजे अभिलाषाओं का।
दर्शन करता चलूँ कुँवारी मोनालिसाओं का।
नमन किया करता, टूटे दिल के अरमानों का,
जहाँ नज़र आता है प्रेम के शिलालेखाओं का।
फिसले फिर भी चढ़े चोटियाँ बना-बना राहें,
कब तक दावत स्वीकार करूँ दसों दिशाओं का।
अब तक कर पाए जो नहीं प्रकाशित अपना घर,
मतलब रखना नहीं है वैसे कथा-क़िस्साओं का।
कहना-सुनना पड़ता है इस प्यार मुहब्बत में,
दर्द सहेजे रहते हैं जो ज़ख़्म रिसाओं का।
कितने बिखरे हैं अनंत तक पल क्षण अवसर के,
हर माद्दा रखते हैं बनना सफल हिस्साओं का।
वक़्त के हाथों गर कमज़ोर ‘प्रभात’ कभी होऊँ
टूटेगा संकल्प कभी ना शुक्र ईसाओं का।