आखिरी इच्छा / अशोक कुमार पाण्डेय
शब्दों के इस
सबसे विरोधाभासी युग्म के बारे में सोचते हुए
अक्सर याद आते हैं ग़ालिब
वैसे सोचने वाली बात यह है कि
अंतिम सांसो के ठीक पहले
जब पूछा जाता होगा यह अजीब सा सवाल
तो क्या सोचते होंगे वे लोग
कालकोठरी के भयावह एकांत में
जिनके गले पर कई बार कसी जा चुकी होती है
वह बेमुरौव्वत रस्सी
हो सकता है एकाएक कौंध जाता हो
फ़ैसले के वक़्त फूट पड़ी पत्नी का चेहरा
या अंतिम मिलाई के समय बेटे की सहमी आंखे
बहुत मुमकिन है
किए-अनकिए अपराधों के चित्र
सिनेमा की रील की तरह गुज़र जाते हों
उस एक पल में
या फिर बचपन की कोई सोंधी सी याद
किसी दोस्त के हांथों की ग़रमाहट
कोई एक पल कि जिसमें जी ली गई हो ज़िंदगी
वैसे अंधेरों से स्याह लबादों में
अनंत अबूझ पहेलियां रचते वक़ील
और दुनिया की सबसे गलीज़ भाषा बोलते
पुलिसवालों का चेहरा भी हो सकता है
ठीक उस पल की स्मृतियों में
कितने भूले-बिसरे स्वप्न
कितनी जानी अनजानी यादें
कितने सुने अनसुने गीत
एकदम से तैरने लगते होंगे आंखांे में
जब बरसं बाद सुनता होगा वह
उम्मीद और ज़िंदगी से भरा यह शब्द - इच्छा
और फिर
कैसे न्यायधीश की क़लम की नोक सा
एकदम से टूट जाता होगा
इसके अंतिम होने के एहसास से
न्यायविदों कुछ तो सोचा होता
यह क़ायदा बनाने से पहले!