आखिरी खत जला रहा हूँ मैं / आनंद कुमार द्विवेदी
मुस्कराहट बहुत जरूरी है, इसलिए मुस्करा रहा हूँ मैं
यार कोई तो मर्सिया पढ़ दो, आख़िरी ख़त जला रहा हूँ मैं
कितनी हसरत से एक दिन मैंने, तेरे कूचे में घर बनाया था
‘वक़्त की बात’ इसे कहते हैं, अब वही घर जला रहा हूँ मैं
रक्खे रक्खे ख़राब होने हैं, ख्वाब अब काम के नही मेरे
सोंचता हूँ के बेंच दूं इनको, आज बाज़ार जा रहा हूँ मैं
मंजिलें कब किसी कि होती हैं, साथ अपने सफ़र ही रहता है
आओ तन्हाइयों यहाँ से चलें, अब कहीं और जा रहा हूँ मैं
जिन्दगी! वाह जिंदगी मेरी, तू भी उसकी हुई तो हो ही गयी
पहले दिल था जहाँ पे सीने में, अब मज़ारें बना रहा हूँ मैं
लाख ‘आनंद’ से कहा मैंने, तू उसे भूल क्यों नही जाता,
सिरफिरा रोज यही कहता है, सारी दुनिया भुला रहा हूँ मैं