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आखिरी पेड़ / निमिषा सिंघल
Kavita Kosh से
अब नहीं रहता उस गाँव में कोई
पनिहारिन गाती गुनगुनाती जहाँ
लाती थी पानी कुएँ से।
घरों से उठता था धुआं चूल्हे का
आती थी सोंधी-सी गंध रोटी और साग की,
नासिका में आज भी महकती है भीतर गहरे कही।
रामदीन काका की नीम तले खटिया
और झूलों पर पेंग बढ़ाते झोटे लेते लड़कियों के ऊचे होते जाते गीतों के स्वर।
गिलहरियों, चिड़ियों की चहचहाहट और जानवरों को हांकने का शोर।
पेड़ों पर निशाना लगाती गुलेले ओर बाग़ में बच्चों का शोर।
खो गई पगडंडियाँ
खो गई पतंगे
खो गया उस गाँव का को आखिरी पेड़।
कटते समय आखिरी बार शिकायत भरी डबडबाई आंखों से देखा था उन ललचाई आंखों को।
जिन्होंने बीज की जगह बोए थे इमारतों के जंगल।
अब ढूँढते हैं छाव उस आखिरी पेड़ की।