भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

आखिर कब तक? / राजीव रंजन प्रसाद

Kavita Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

एक बस्ता लिये
एक बोतल लिये
राह में तितलियों की तरह डोलती
बोलती तो हवा मिस्रियाँ घोलती
पैर में पंख थे, मन में जुगनू जले
वह कली/ अधखिली
खेलती/कूदती/झूलती
स्कूल चली...

शाम आयी मगर घर वो आयी नहीं
और आयी तो हर आँख पत्थर हुए
एक चादर कफन बन के फन खोल कर
पूछता था धरा डोलती क्यों नहीं?
वह पिता था जो परबत लिये आ रहा
और माँ ढह गयी
लाडली उठ मेरी, बोलती क्यों नहीं?

‘बलिहारी गुरु आपनों’
हे गोविन्द!! यह क्या बताया?
मसल कर मारी गयी यह मासूम
जबरन फटी हुई आँखे बंद किये जाने से पहले तक
तुमसे यही सवाल दागती रही थी
....और उसकी अंतिम यात्रा
सवालों का दावानल हो, आक्रांता है
कोई कंदरा तलाश लो
कि आत्मा, परमात्मा से प्रश्न लिये आती है
गीता में तुमने ही कहा है
मेरे चाहे बगैर एक पत्ता भी नहीं हिलता
धिक्कार!! यह क्या चाहा तुमने?

कुत्तों, सियारों, भेडियों को कौन अध्यापक बनाता है?
कुकुरमुत्तों से हर छत के नीचे
क्यों उग आते हैं स्कूल?
सरकार अपने होठों पर लाली लगाये
कौन सी फैशन परेड में है?
थू, यह समाज है
जिसे अपनी नपुंसकता शर्मिंदा नहीं करती।

पैसे ही फेंक कर गर
अच्छी हुई पढ़ाई
तो कल से आँख मूंदो
हर कुछ तबाह होगा
काजल की कोठरी से कब तक निबाह होगा?
कुतिया जनेगी कुत्ते और सर्पिणी सफोले
साबुन लगा के कौवा ना हंस हो सकेगा
स्कूल हैं बाजार, विद्या का कैसा मंदिर?
तो किस लिये दरिंदे टीचर न बनें आखिर?

26.10.2007