आखिर क्यों / मीना अग्रवाल
आखिर क्यों
सहती रहती है नारी
अनाचार भारी !
शायद इसलिए
कि उसने टूटकर भी
नहीं सीखा है टूटना,
लेकिन एक अहम सवाल
कौंधता है
मस्तिष्क में बार-बार
कि कब तक सहेगी
और टूट्ती रहेगी
इसी तरह !
जन्म होते ही
समाज के सुधारक
तथाकथित संभ्रांत जन
क्यों देखते हैं बेटी को
निरीह और उदास आँखों से,
जन्म पर
क्यों नहीं बजतीं
शहनाइयाँ आँगन में
क्यों नहीं गाए जाते
मंगलगीत और बधाइयाँ,
क्यों नहीं बाँटी जाती
मिठाई पूरे गाँव में
आखिर क्यों !
क्यों नहीं
खेलने दिया जाता
स्वच्छंदता के साथ
बेटों की तरह,
क्यों नहीं पढ़ने के लिए
भेजा जाता स्कूल
और यदि
स्कूल भेजा भी गया
तो रहती है उससे
यही अपेक्षा
कि वह घर आकर
कामों में हाथ बटाए !
क्यों बेटों को
मिलता है दुलार
दिया जाता है
पौष्टिक आहार,
और बेटी को
बचा-कुचा भोजन
आखिर क्यों !
बेटी को
क्यों नहीं दिया जाता
मज़बूत आधार
बराबर का अधिकार,
क्यों उसकी इच्छाओं की
पूर्ति नहीं की जाती
विवाह के बाद,
क्यों उसको पहचान
नहीं दी जाती,
क्यों समझा जाता है
उसे मशीन,
क्यों नहीं होती
उसके पास
पंख फैलाने के लिए ज़मीन
आखिर क्यों !
समाज के
अत्याचारों का ताप
क्यों सुखा देता है
उसके आँसू !
क्या उसके मन में
नहीं उठता है तूफान,
क्या उसके अंतरतम में
नहीं है कोई भावना,
फिर क्यों
उसकी बात को
किया जाता है अनसुना,
क्यों उसे
सबकुछ सहकर भी
चुप रहने के लिए
किया जाता है बाध्य
आखिर क्यों !
वो टूट्कर भी
कण-कण जोड़ती है,
सबको जोड़कर
ग़लत को भी
सही राह पर मोड़ती है,
बिखरे हुए परिवार
और फिर समाज को
तिल-तिल सहेजती है,
फिर क्यों
उसके टूटे तन-मन को
नहीं समेटता ये समाज,
नारी की दुश्मन
नारी ही क्यों है आज,
क्यों उसके सपने
नहीं ले पाते हैं आकार
क्यों है वह लाचार,
क्यों नहीं उसे
बनने दिया जाता है
उन्मुक्त आकाशचारी,
क्यों पिंजड़े में बन्द
दूसरों के स्वार्थ की
भाषा बोलने के लिए
मज़बूर है नारी,
क्यों उड़ने से पहले ही
काट दिए जाते हैं
उसके नन्हे-नन्हे
कोमल-कोमल पंख
आखिर क्यों !
ग़लती सबसे होती है
लेकिन उसकी
एक छोटी-सी ग़लती
होती है
हज़ार के बराबर
और पुरुष को
हज़ार ग़ल्तियाँ
करने पर भी
वही स्म्मान, वही आदर
आखिर क्यों !
क्यों है इतना भेद-विभेद
क्यों है इतना दृष्टिभेद
आखिर क्यों !
जब तक इस जलते हुए
सवाल का उत्तर
नहीं मिलता,
जब तक नारी की
आँख के आँसू
सैलाब बनकर
नहीं ले जाते बहाकर
समाज के आडंबरों की
ऊँची-ऊँची गगनचुंबी
अट्टालिकाओं को,
तब तक नारी¬-मन
भटकता रहेगा,
होते रहेंगे अत्याचार
होती रहेंगी भ्रूणहत्याएँ
इसी तरह !