भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
आखिर तद कांईं ? / इरशाद अज़ीज़
Kavita Kosh से
जाणूं हूं
थूं नीं जा सकै
काच साम्हीं
आपरै साच सूं
कद तांई भाजसी
कद तांई करसी हाको
आपरै मन रै मांयलै
सरणाटै नैं तोड़ण सारू
कद तांई
अंधारै में भाजतो रैसी
खावतो रैसी ठोकरां
रोंवतो रैसी
आपरी किस्मत नैं।
खोल’र देख आंख्यां
थारै चौफेर
थारै ओळै-दोळै रा लोग
अचूंभो करै
थारै मिजळैपण माथै।