आगत वसन्तक प्रति दूटा प्रेम कविता / राजकमल चौधरी
(एक)
कतेक राति बितलापर मुदा इजोरिया उगबासँ कतेक पहिने
एकटा रसिक स्त्री, हमरासँ अनचिन्हार
हमरा हृदयक कारी अन्हारमे पियासल पाखी जकाँ अपस्याँत
ताकि रहल अछि पानि
हमरासँ अनचिन्हार एकटा रसिक स्त्री कारी अन्हारमे
ताकि रहल अछि।
पानि कत्तहु नहि अछि, एहि वसन्तपूर्वक मरुभूमिमे नहि अछि पानि
केवल एकटा ठुट्ठ भयाओन गाछ।
गाछमे कहियो डारि-पात फल-फूल मंजरिक उत्सव छल
गाछमे कहियो
निश्चय छल वसन्तक सिनेह आ उत्तेजना...।
एहि मरुभूमिक तृतीय सत्य ईहो थिक
जे एहि ठाम सदिखन अतीत कोनो एहने
भविष्यमे स्थापित होइत अछि, जेना
काल नहि हो वर्तमान।
एहि वसनतपूर्वक मरुभूमिमे आगि अछि आन किछ रहबाक
नहि अछि प्रयोजन
प्रयोजन नहि अछि वर्त्तमान निश्चयमे अतीत
भविष्य अनिश्चयमे फलप्राप्ति
निर्मूलक अर्थात् मूलहीन सम्भव नहि, सम्भव नहि, सम्भव नहि,
सम्भव नहि आगत वसन्तक
प्रतीक्षा।
ओ रसिक स्त्री अथच ओ पियासल पाखी अपस्याँत रहथि
एहि कारी अन्हारमे।
(दू)
आब तँ एहि बातक कोनो संभावना नहि जे पुनः ओ सर्पलता
हमर दहिना बाँहिमे ओझरा जयबाक चेष्टा करत...।
जखन हमरा कोनो काज नहि रहत
हम दछिनबरिया कोठली मे निद्रालीन रहि जायब
आब तँ एहि बातक कोनो सम्भावना नहि जे पुनः ओ सर्पलता
पछबा बिहाड़िसँ उत्तेजित भ’ सकत...।
जखन हमरा कानो पुरान गीत मोन पड़ि जायत
हम शतरंजक खोड़हा ओछाक’ सायंकालीन मित्रक प्रतीक्षा
करब
बिसरि जायब चाहक गिलासमे चिन्नी देब
अन्हारसँ पहिने आङनसँ बिदा भ’ कतक राति धरि
कोसी-बान्हपर एकस्वर टहलैत रहब चिन्तित
जे एहू बेर...जे एहू बेर
जे एह बेर अतिचारक कारणेँ अथवा व्यवहारक कारणेँ
एहि बातक कोनो सम्भावना नहि रहल जे पुनः ओ सर्पलता...
तँ की करब हम
तँ भोरक लालटेन जकाँ जरब हम...।
(मिथिला मिहिर: 19.2.67)