आगमन / असद ज़ैदी
मैं दिल्ली में दाख़िल हुआ
सराय रोहिल्ला के रास्ते से
मुझे मालूम था न वहाँ सराय है न रोहिल्ले
बस छोटी लाइन का मैला सा स्टेशन था उस वक़्त
जहाँ चेतक एक्सप्रैस का सफ़र ख़त्म हो जाता था
उतरते ही जान गया एक पुरातन शहर में आ गया हूँ
उससे भी पुरातन भीड़ के बीच क़िस्मत आज़माने
भूखा था बाहर निकलकर देखा क्या खाऊँ
एक आदमी ख़ोमचा लिए खड़ा था
उसने भाँप लिया कहा खाकर तो देख भइया !
और मैंने जाना कि रामलड्डू किसे कहते हैं
यहाँ नए आए हो? उसने पूछा
बताने लगा सुनो, नेहरू जी को मरे दस साल हुए
और बेशक मुल्क पर इन्दिरा गाँधी की पकड़ तगड़ी है
पर दिल्ली में चलती है हाल-फ़िलहाल
मदनलाल खुराना की केदार नाथ साहनी की
विजय कुमार मल्होत्रा की कँवरलाल गुप्ता की
चलने को तो थोड़ी बहुत
ब्रह्मप्रकाश, दलीप सिंह और भगत की भी चल जाती है
गुरु हनुमान का जैसा अखाड़ा पूरे भारत में कहीं नहीं
उसी के पट्ठे दुनिया में देश का नाम करेंगे देख लेना
हम जनसंघी नहीं, दिल से तो हम भैया कांगरेसी हैं
पर सच बात तुमको बतला रहे हैं
हर दिल्ली आनेवाले को आना चाहिए
बस में चढ़ना और उतरना फुर्ती से मगर बिना घबराए
यह सीख उसी से मिली
जेब का ख़याल रखो पर धक्कामुक्की से न डरो
कहा ये बातें याद रखने की हैं
मैंने इस चक्कर में दो बार रामलड्डू खा लिए
राजनीति का आरम्भिक सबक़ भी ले लिया
पहलवानी के शौक़ीन उस ख़ोमचेवाले से
पैसे दिए तो उसने ग़ौर से देखा मेरे तार तार बटुए को
कहा वह भी प्रवासी है मुझसे ज़्यादा पैसे नहीं ले रहा
पूछा कितने दिन टिकने का इरादा है
मैंने कहा फ़िलहाल तो आमद हुई है
रवानगी के बारे में अभी कैसे बताऊँ !