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आगि / दिलीप कुमार झा

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आगि तँ बहुत छैक ओकरा भीतर
आगिक उष्मासँ धहधह करैत छैक देह
ओएह उष्मा थिकै ओकर ऊर्जा ताहिसँ अछि अनजान
सगरो पसरि जाय ई आगि
जे उर्जान्वित क' सकय हमरा युवारक्तकें
आगिक एकटा-एकटा चिनगी
अछि महत्त्वपूर्ण
आगि मुदा होइछ बड़ अनटाह
कनियें असावधानी क' दैछ गामक गाम सुड्डाह
बड़ शक्ति छैक आगिमे
हमरा भीतर कियै नहि धधकि रहल अछि आगि
जे कतेको दिनसँ सुनगि रहलए
एहि व्यवस्थाक सरान्धसँ
मातृभूमि आओर मातृभाषाक उपेक्षाक आक्रोशसँ।