भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
आग-सा मौसम हुआ जबसे ठिठुरती धूप का / विनय मिश्र
Kavita Kosh से
आग-सा मौसम हुआ जबसे ठिठुरती धूप का
रंग ही कुछ और है तेवर बदलती धूप का ।
घिर गए हैं वो अँधेरों से यहाँ चारो तरफ़
काफ़िला लेकर चले थे जो चमकती धूप का ।
ज़िंदगी है शोर करते एक झरने का बहाव
मौत है साया पहाड़ों से उतरती धूप का ।
रोशनी का भ्रम चलो टूटा बहुत अच्छा हुआ
कारनामा एक ये भी है छिटकती धूप का ।
कुछ क़िताबों में पढ़ा था कुछ बुज़ुर्गों से सुना
याद है मुझको अभी तक चित्र हँसती धूप का ।
दाँव उसका, चाल उसकी, हैं उसी के फ़ैसले
खेल जारी है यहाँ इक चाल चलती धूप का ।
सिर्फ़ बाहर ही नहीं है अब इरादों की चमक
मेरे भीतर भी है मंज़र अब मचलती धूप का ।