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आग और पानी / केशव
Kavita Kosh से
यहाँ वह
किसी मामूली-सी चीज़ की
प्रतीक्षा करता है
घण्टों
कभी दिनों
और कभी-कभी तो उम्र-भर
वहाँ वह
उम्र भर
एक बटन पर उँगली रखे
हासिल करता है हर चीज़
प्रतीक्षा के
दोनों के लिये
अलग-अलग मानी हैं
एक के लिए आग
दूसरे के लिये पानी है
एक दूसरे की ओर
बढने से पहले
दोनो अपने-अपने को तौलते हैं
अपने लिये झूठ
दूसरे के लिये सच बोलते हैं
पर आग जीतकर भी
अंतत: पानी से हार जाती है
सच यह है
फिर भी सच नहीं
रिश्ता यह सदियों से
दोनों में कायम हैं
कदम उठाने में
कौन करता है पहल
संघर्ष का पुल लाँघने की
राख के ढेर से भी
उभरेगा उसका नाम
बढ़ाओ तो सही कदम
प्रतीक्षा के इस जाल को
समेटने के लिए
पानी के ऊपर भी
आग
बनी रह सकती है