आग और लोहे के आदमी के साथ गुफ़्तगू / कुमार कृष्ण
मुझे नहीं पता था
वह आग और लोहे का आदमी
हो जाएगा गायब एक दिन हमेशा के लिए
दोस्तों-रिश्तेदारों की बाहें हो जाएंगी चूर
सिखर दोपहर में
पैंतीस साल का पका हुआ साहस
कुचला जाएगा सड़क के बीचों-बीच
मुझे नहीं पता था
तेरह मई की सुबह डेड हाउस के फ़र्श पर
तुम मिलोगे शतरंजी कमीज में
नींद की मुद्रा में
रेल की पटरी को हमेशा रहेगा
तुम्हारे पैरों का इन्तजार
तुम्हारे साये को ढूँढ़ेगा पोखर का पानी
दरवाजे को चौखट कदमों की आहट
तुम छोड़ गए-
अपना साहस, अपनी ऊर्जा
अपनी हिम्मत और आग
तुम्हारा आत्मसम्मान छील गया अनगिनत ज़हन
तुम ढूंढ़ते रहे हमेशा-
प्यार की रोटी का नन्हा-सा टुकड़ा
ढूंढ़ते रहे वर्णमाला का सैंतीसवां अक्षर
तुम्हारे लिए एक शब्द था 'माँ'
जिसे तुमने पुस्तक में पढ़ा निबन्ध की तरह
पैंतीस साल का आक्रोश
बदल देना चाहता था
पृथ्वी की हर चीज
बदल देना चाहता था रूढ़ियों-अंधविश्वासों के अर्थ
सिर और पाँव के बीच
छाती में कहीं बहुत गहरे
छुपा कर ले गए तुम कुछ अपने साथ
नहीं जला सकी उसे छः घण्टे तक चिता कि आग
सबसे पहले जले तुम्हारे लोहे के पाँव
घुंघराले बादल
आक्रोश-कल्पनाओं का सिर उसके बाद
उसी के साथ होंठ, जीभ, दांत और गाल
रफ्ता-रफ्ता जली फौलादी बाहें
एक पोटली में लेकर जो लौटे घर
बस वही था अशोक वही तुम थे
फिर-फिर बार-बार लगता है ऐसा
यहीं-कहीं हो तुम
हुफ्तू की झाड़ियों के पीछे
चीड़ के झुरमुट में, रेल की पटरी पर
भरे बाज़ार में दोस्तों से बतियाते
पानी की बंहगी लिए टमाटर सींचते
बिजली की आग में उलझे
दिन-रात समझाते-
वोटरों को लोकतन्त्र का अर्थ
लगता है यहीं-कहीं हो।