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आग का शोला हवा में दिख रहा है / रमेश चंद्र पंत
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आग का शोला हवा में दिख रहा है,
द्वीप संशय का निरंतर बढ़ रहा है ।
रोज़ ही षड्यंत्र तम फिर कर रहे हैं,
ज्योति का हर सूर्य आहत लग रहा है ।
यह नदी जो बह रही है, पूछना,
ख़ून इसमें रोज़ कितना मिल रहा है ।
विषधरों का वंश फिर से इन दिनों,
खिलखिलाती हर हँसी को डस रहा है ।
चीख़ जो अक्सर सुनाई दे रही है,
दर्द से घायल पखेरू उड़ रहा है ।