भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

आग की खदान में उतरी शताब्दी / शलभ श्रीराम सिंह

Kavita Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

बहुत देर हो गई है ! बहुत देर ....!
काफी लम्बा रास्ता तय कर चुके हैं हम !
फाड़कर फेंक दो इतिहास को और आज की बात करो !
आज की ..............!

सूरज की पहली किरणों के साथ उट्ठे हुए हमारे क़दमों से
रास्तों की खूबसूरत पगडण्डियों और बे-मानी मुलाक़ातें
इस कदर लिपट गई हैं कि गिरने-गिरने को हो गए हैं हम !
हमारे हाथों को अब किसी तेज़ धार वाले चाकू
और जलती हुई मशाल की ज़रूरत है !
काफ़ी लम्बा रास्ता तय कर चुके हैं हम......!

बाज़ारों में लाखों-लाख सामान एक साथ बिक रहे हैं !
फूल या बन्दूक अपनी-अपनी पसंद पर मुनहसिर है !
वे--जिन्होंने हल-फावड़े-कुदाल बनाये
उन्हीं के हाथ बनाते हैं बन्दूक-पिस्तौल-मशीनगन !
उधार ली गई आँखों में घृणा या आक्रोश भर कर
उनकी ओर देखने का साहस करने वालों !
हिरोशिमा से वियतनाम तक
अपनी लाशों का जाल बिछाने वाले
ये वही लोग हैं ! वही लोग....................!
इन्हीं के बच्चों की किलकारियों पर दर्ज हैं फौज-बूटों की ख़राशें !
इन्हीं की लहलहाती फ़सलों पर टिका है बारूदी धुँए का साया !

आसमान में उट्ठे हुए उनके हाथ
हवा की लहरों का रुख़ बदल चुके हैं !
आग की खदानों में उतर रही है यह शताब्दी !
काफ़ी लम्बा रास्ता तय कर चुके हैं हम...!
जवानियाँ अब खाल से बाहर आ चुकी हैं !
कम्सिनी ने फ्राक को आग में डाल दिया !
अदमीयत की चाकगिरहबानी
रहम की नहीं--इन्क़लाब की राह देख रही है !
और देख रही है : गीला ईंधन लेकर
चूल्हा जलाती दुलहिनों
और
दवा की खाली शीशियों की ओर
उदास नज़रों से तकती माओं को !
रोज़--करोड़ों-करोड़ हाथ
जो सिर्फ़ आग माँगने के लिए खुलते हैं--किसके हैं ?
इतिहास के पन्नों में कहाँ हैं उनके नाम ?
फाड़कर फेंक दो--फेंक दो इतिहास को !
काफी लम्बा रास्ता तय कर चुके हैं हम....!
हम : जिन्हें खाकर पचा नहीं पाएँगी लोहे की भट्ठियाँ !
चिमनियों के सर पर चढ़ कर बोलेगी हमारी राख !
काफी लम्बा रास्ता तय कर चुके हैं हम.....
काफी लम्बा...............!
(1966)