भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
आग नयनों में आग पलने दो / 'सज्जन' धर्मेन्द्र
Kavita Kosh से
आज नयनों में आग पलने दो।
न बुझाओ चराग़, जलने दो।
आग बुझती न सूर्य के दिल की,
उम्र दिन एक से हैं ढलने दो।
नींद की बर्फ़ लहू में पैठी,
रात की धूप से पिघलने दो।
थक गई है ये अकेले चलकर,
आज साँसों पे साँस मलने दो।
नीर सा मैं हूँ शर्करा सी तुम,
थोड़ी जो है खटास चलने दो।