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आग पे / माधव कौशिक
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आग पे किसका मकां रख के चला आया है
आदमीयद को कहां रख के चला आया है ।
पूरी बस्ती की निगाहों में हैं आंसू कितने
चांद आंखों में धुआं रख के चला आया है ।
अब तो मुजरमिल ही उसे समझेंगे दुनिया वाले
क्योंकि वो सच्चा बयां रख के चला आया है ।
रात तन्हा है मगर इतनी अकेली भी नहीं
कोई क़दमों के निशां रख के चला आया है ।
काम करता है तो करता है बड़े बेदिल से
क्या पता दिल को कहां रख के चला आया है ।