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आग में ज़िदगी को तपा कर जिये हैं / महावीर प्रसाद ‘मधुप’

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आग में ज़िदगी को तपा कर जिये हैं
सर झुकाकर नहीं सर उठा कर जिये हैं

भीख मांगी न मझधार से है रहम की
बीच लहरों के हम मुस्कुरा कर जिये हैं

चाँद-तारों का कोई न अहसान हम पर
हम अँधेरों को साथी बनाकर जिये हैं

नाम से लोग डरते हैं जिनके हमेशा
हाथ उन हादसों से मिला कर जिये हैं

की बहारों की हमने ख़ुशामद हर्गिज
हर ख़िज़ां को गले से लगाकर जिये हैं

दी न आने कभी आन पर आँच अपनी
दीप तूफ़ान में भी जलाकर जिये हैं

मुश्क़िलो में भी जलाकर जिये हैं
हर घड़ी टेक अपनी निभाकर जिये हैं

जाल में फाँस पाया प्रलोभन न कोई
ध्येय पथ पर सभी सुख लुटाकर जिये हैं

ले सहारा न पीछे चले हैं किसी के
पास क़दमों के मंज़िल बुला कर जियें हैं

चंद सिक्को में गिरवी न रक्खा क़लम को
गीत मन के ‘मधुप’ रोज़ गाकर जिये हैं