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आग / चन्द्रकान्त देवताले
Kavita Kosh से
पैदा हुआ जिस आग से
खा जाएगी एक दिन वही मुझको
आग का स्वाद ही तो
कविता, प्रेम, जीवन-संघर्ष समूचा
और मृत्यु का प्रवेश द्वार भी जिस पर लिखा -
मना है रोते हुए प्रवेश करना
मैं एक साथ चाकू और फूल आग का
आग की रौशनी और गंध में
चमकता-महकता- विहँसता हुआ
याद हैं मुझे कई पुरखे हमारे
जो ताज़िन्दगी बन कर रहे
सुलगती उम्मीदों के प्रवक्ता
मौजूद हैं वे आज भी
कविताओं के थपेड़ों में
आग के स्मारकों की तरह
इन पर लुढ़कता लपटों का पसीना
फेंकता रहता है सवालों की चिंगारियाँ
ज़िन्दा लोगों की तरफ़