भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

आग / रतन सिंह ढिल्लों

Kavita Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

आओ!
इस ठंडी हो रही
आग को निहारें

देखें, कुरेदें
बाक़ी बचे
अंगारों को खोजें ।

कभी इस आग में
देह दग-दग करती थी
अब
पेट भी नहीं सुलगते ।
 
पेटों की जठराग्नि ।
 
मूल पंजाबी से अनुवाद : अर्जुन निराला