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आघात अधिक है / राजेन्द्र गौतम
Kavita Kosh से
कुछ प्यास अधिक है ,
घाम वधिक है
कम है तो बस जल कम है ।
सूखे आश्वासन,
वन का अनशन
दोपहरी रमती धूनी
रुक क्षितिज ताकती,
धूल फाँकती
हिरनी की आँखें सूनी
संत्रास अधिक है,
ज्येष्ठ वधिक है
सच है तो केवल भ्रम है ।
कंकाल हुए तन, ढोते मन-मन
बोझ दुखों की गठरी का
आकाश नील है,
या कि चील है
माँस नुचे यों ठठरी का
आघात अधिक है,
छिपा वधिक है
कौन कहे यह मौसम है ।
सब चलतीं सड़कें,
जलतीं सड़कें
हाथ छिले, गिट्टी कूटें
ढो, जल, तप दिन भर,
रोड़ी-डामर
भाग यहाँ इनके फूटे
अभिशाप अधिक है
नगर वधिक है
सिर्फ़ घुटन का उद्गम है ।