भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

आजकल की लडकियाँ / निरुपमा सिन्हा

Kavita Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

आजकल की लड़कियाँ
नहीं कहती
भाई मुझे छोड़ आना
स्कूल के गेट तक
नहीं उम्मींद करती कि
पापा पहुँचा देंगे
ट्यूशन सेंटर तक
उठाती है अपनी स्कूटी
और
निकल जाती है
गुलामी की उस मानसिकता से
बहुत दूर
जहाँ
बेटी होने पर
बाहर के दरवाज़े पर टाँग दिया गया था
"नज़र बट्टू”
आजकल की लड़कियाँ नहीं पहनती
वैसे कपड़े
जिनसे ढँक जाती थी
सुंदरता के साथ कुरूपता भी
लगाती है सन ग्लासेज और सन स्क्रीन क्रीम
देती हैं चुनौती
सूरज के ताप
ज़माने की गर्म हवा को

स्वयं करती हैं
विस्तार
अपनी परिधि में
थमाकर एक रेजिग्नेशन लेटर
ढँक कर रख देती है
चार बर्नर वाले चूल्हे को
जहाँ अक्सर जल जाया करती थी
इच्छाएँ..
उतारती हैं घर की चाभियाँ
चढ़ती
सफलता की सीढ़ियाँ…
अब नहीं बाँधती
आजकल की लड़कियाँ चोटी
जिनमें गूँथ कर रखती थी
परम्पराओं के नाम पर
लाल रिबन
छोड़ देती है बालों को
खुले आसमाँ के नीचे

आज़ादी के परचम की
इस
दावेदारी में
बहुत अहम् रोल है
इन खुले बालों का!