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आजकल / प्रताप नारायण सिंह
Kavita Kosh से
हर तरफ
लहरा रहा है
स्याह साया आजकल
जानवर दो पैर के
खेती नई करने लगे
गंध से बारूद की
उद्यान को भरने लगे
साँस भी
दूभर हुई है
घुटन छाया आजकल
भँवर में यौवन फँसा
मिलती नहीं कोई दिशा
लुप्त होती चेतना अब
घुल रहा रग में नशा
देवता ने
मृत्यु के है
बरगलाया आजकल
कागजी हैं फूल सारे
अब नहीं वो ताजगी
बस बहानो से यहाँ पर
चल रही है ज़िन्दगी
सेतु
दोनों लोक का है
चरमराया आजकल