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आज़ादी / त्रिपुरारि कुमार शर्मा
Kavita Kosh से
जुबां तुम काट लो या फिर लगा दो होंठ पर ताले
मिरी आवाज़ पर कोई भी पहरा हो नहीं सकता
मुझे तुम बन्द कर दो तीरग़ी में या सलाख़ों में
परिन्दा सोच का लेकिन ये ठहरा हो नहीं सकता
अगर तुम फूँक कर सूरज बुझा दोगे तो सुन लो फिर
जला कर ये ज़ेह्न अपना उजाला छाँट लूँगा मैं
सियाही ख़त्म होएगी क़लम जब टूट जाएगी
तो अपने ख़ून में उँगली डुबा कर सच लिखूँगा मैं