आजादी के 50 वर्ष और मेरा गाँव / हरेराम बाजपेयी 'आश'
मेरे गाँव को नहीं मालूम,
कि देश को आजाद हुए
पचास वर्ष हो गए,
क्योंकि मेरा गाँव
उन उपलब्धियाँ से अभी अछूता है
जिन्हें आजादी के नाम से गिनाया जा रहा है
दूसरे शब्दों में भुनाया जा रहा है
बड़े-बड़े बांध, बिजली घर
शताब्दी रेलें, चौंधियाते शहर,
लंबी-लंबी सड़कें
उन पर दौड़ती अनगिनत गाडियाँ
बड़े-बड़े कारखाने
चिमनियों का धुआं
भीड़ और शोर
टेलीविज़न, दूरभाष
एक होते धरती और आकाश,
कुछ भी तो नहीं है मेरे गाँव में,
आज भी....
टापरें है मिट्टी के
पोखर हैं पानी के
छाया है पेड़ों की
रस्ते है मेढ़ों के
नसीब नहीं होता सबक़ों,
मिट्टी का तेल
धनियां को नहीं मालूम
कैसी होती है रेल।
जब कोई बीमार होता है,
डॉक्टर की परछाई तक नहीं दिखती,
मरने वाला खुद ही
अपनी लाश ढोता है,
अभाव और विवशताएं
यहां एक साथ रहती है
जो आजादी के नाम पर
कुछ इस तरह कहती हैं,
हमने पिछले 50 वर्षों में,
पीने के पानी के लिए
एक अदद कच्ची सड़क के लिए
अ आ इ ई तक के स्कूल के लिए
खाँसी को रोक सके,
ऐसे अस्पताल के लिए,
खुले आकाश में एक चौपाल के लिए
न जाने किनको किनको दिए वोट
पर सभी करते रहे हमसे खोट
इसीलिए आश्वासनों से भरे
किन्तु सुविधाओं से रीतें हैं।
हमारे गाँव के लोग
खून का घूँट पीकर
मरने के लिए ही जीते हैं।
आजादी के बुलन्द महलों के
शेष रहे खंडहरी बुजर्गों की
सिमटती यादों की पगडिण्डयों से
आज भी चीखती सुनाई देती हैं,आवाजें
इन्कलाब जिंदाबाद,
वन्दे मातरम- वन्दे मातरम,
इन खंडहरनुमा शहीदों ने अपने बलिदान का चेक
आजादी के बैंक से नहीं भुनाया
इसीलिए आज भी उन्हें
और हमारे गाँव को नहीं मालूम
कि देश को आजाद हुए हो गए पचास वर्ष
फिर बताओं हम कैसे मनाए हर्ष... ॥