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आजु सखी, हौं प्रात समय दधि मथन उठी अकुलाइ / सूरदास

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राग बिलावल

आजु सखी, हौं प्रात समय दधि मथन उठी अकुलाइ ।
भरि भाजन मनि-खंभ निकट धरि, नेति लई कर जाइ ॥
सुनत सब्द तिहिं छिन समीप मम हरि हँसि आए धाइ ।
मोह्यौ बाल-बिनोद-मोद अति, नैननि नृत्य दिखाइ ॥
चितवनि चलनि हर्‌यौ चित चंचल, चितै रही चित लाइ ।
पुलकत मन प्रतिबिंब देखि कै, सबही अंग सुहाइ ॥
माखन-पिंड बिभागि दुहूँ कर, मेलत मुख मुसुकाइ ।
सूरदास-प्रभु-सिसुता को सुख, सकै न हृदय समाइ ॥

भावार्थ :-- (श्रीयशोदा जी किसी गोपी से कहती हैं -) `सखी ! आज सबेरे मैं दही मथने के लिये आतुरतापूर्वक उठी और दही से मटके को भरकर मणिमय खम्भे के पास रखकर हाथ में मैंने मथानी की रस्सी पकड़ी । दही मथने का शब्द सुनकर उसी समय श्याम हँसता हुआ मेरे पास दौड़ आया । अपने नेत्रों का चञ्चल नृत्य दिखलाकर (चपल नेत्रों से देखकर) तथा बाल-विनोद के अत्यन्त आनन्द से उसने मुझे मोहित कर लिया । उस चञ्चल ने अपने देखने तथा चलने (ललित गति) से मेरे चित्त को हरण कर लिया, चित्त लगाकर (एकाग्र होकर) मैं उसे देखती रही। (मणि-स्तम्भ में) अपना प्रतिबिम्ब देखकर वह मन-ही-मन पुलकित हो रहा था, उसके सभी अंग बड़े सुहावने लगते थे । मक्खन के गोले को दो भाग करके दोनों हाथों पर रखकर एक साथ दोनों हाथों से मुँह में डालते हुए मुस्कुराता जाता था, सूरदास जी कहते हैं कि मेरे स्वामी की शिशुलीला का सुख हृदय में भी समाता नहीं (इसी से मैया उसका वर्णन सखी से कर रही हैं)।