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आजु सखी मनि-खंभ-निकट हरि, जहँ गोरस कौं गो री / सूरदास

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राग गूजरी

आजु सखी मनि-खंभ-निकट हरि, जहँ गोरस कौं गो री ।
निज प्रतिबिंब सिखावत ज्यों सिसु, प्रगट करै जनि चोरी ॥
अरध बिभाग आजु तैं हम-तुम, भली बनी है जोरी ।
माखन खाहु कतहिं डारत हौ, छाड़ि देहु मति भोरी ॥
बाँट न लेहु, सबै चाहत हौ, यहै बात है थोरी ।
मीठौ अधिक, परम रुचि लागै, तौ भरि देउँ कमोरी ॥
प्रेम उमगि धीरज न रह्यौ, तब प्रगट हँसी मुख मोरी ।
सूरदास प्रभु सकुचि निरखि मुख भजे कुंज की खोरी ॥


भावार्थ ;--सूरदास जी कहते हैं कि (उस गोपिका ने बताया) `सखी (मेरे घर में मणिमय खंभे के पास) जहाँ गोरस का ठिकाना है, वहाँ जाकर श्यामसुन्दर बैठे और उस खंभे में पड़े प्रतिबिम्ब को बालक की भाँति (बालक मान कर) सिखलाने लगे - `तू मेरी चोरी प्रकट मत करना । हमारी जोड़ी अच्छी मिली है, आज से हमारा-तुम्हारा आधे-आधे का भाग रहा । मक्खन खाओ ! इसे गिराते क्यों हो ? यह भोली बुद्धि छोड़ दो । तुम बँटवारा करके नहीं लेना चाहते, सब-का-सब चाहते हो ? यही बात तो अच्छी नहीं । यह अत्यन्त मीठा है ;(पहले खाकर देखो) यह तुमको अत्यन्त रुचिकर लगे तो भरा हुआ मटका तुम्हीं को दे दूँगा । (यह सुन कर) मेरा प्रेम उल्लसित हो उठा, धैर्य नहीं रहा; तब मैं मुख घुमा कर प्रत्यक्ष (जोरसे) हँस पड़ी । इससे श्याम संकुचित हो गये, मेरा मुख देखते ही वे कुंज-गली में भाग गये ।'