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आज्जी के मंडवे की ख़ातिर / प्रज्ञा दया पवार

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यह ज़िन्दगी जैसी भी रही हो
अपने पेट के जाए बच्चे-सा मानकर
आज्जे!1 तुमने कितना प्यार लुटाया
मंडोली के आख़िरी मटके की तरह।

गावकुस से बाहर2 होने की नियती का जख़्म लेकर
तुमने जन्म लिया
उस घड़ी कहीं कोई तारा नहीं टूटा
न कहीं कोई अनहोनी घटी
विधाता ने तुम्हारे माथे पर
अभावों की सुर्ख हिलाल3 गोदी
और देखते-देखते एक अल्हड लडकी को
कसकती व्यथा ने जज़्ब कर लिया

फिर कैसे तुमने बाँधी उम्मीद
कहाँ से लाईं इतनी हिम्मत
कैसे खाए बासी टुकड़े
कैसे निगली चान्या डल्ली4
बता मेरी आज्जे1
कहाँ तक ढोई येस्करकी5 की पखाल?

फिर भी भूखे पेट पर दाँत जोड़े
बीते नहीं दिन-रात
गोबर-मिटटी के रिसते हुए छप्पर के नीचे
झूम-झूम कर नाचा तुम्हारा मन-मोर
हल्दी लगी, तन दमका
भीतर जमी अभावों की काई पर हलकी तरंग उठी

सच्चाई के साथ तूने कबाड़ में घर संसार रचा
उसे अपने ख़ून पसीने से सींचा
पसीना बहाया, आँसू बहाए
अपने पाती का ज़ुल्म निगला।
आज्जे! तूने कितनी बड़ी चट्टान तोड़ी
फटी चिंदियों से उजाले को सहेज लिया

माथे का कुंकुम पुँछने के बाद
सूना कपाल लिए
जी तोड़ मेहनत कर
गाँव की गाड़ी के चक्के में जुत कर
आज्जे! तुमने सरवा6 चुनी
पहाड़ों की चोटी से लकड़ियाँ ढोईं
मरे ढोरों को कंधा दिया
नन्हे-नन्हे चूसन को
अपने हाथों की संभाल देकर
धीरे-धीरे उन्हें पाठा, जवान किया।

मौत की बेहोशी से संभलकर
आखिर तुम्हारी बेल मंडवे चढ़ी
फूली....फली
और एकाएक ही गचक कर तुम्हारे थके-हारे जिस्म ने
आखिरी हिचकी ली।

अब नहीं है बालाएँ लेने वाली
तुम्हारी खुरदुरी ममता भरी हथेलियाँ
तुम्हारी आँखों की जीती जागती
आस भी नहीं है।
हम तो सुख के चार आख़िरी कौर भी
तुम्हें खिला नहीं सके
बता मेरी आज्जे
तुम्हारे मंडवे का कर्ज़
अब कैसे उतारूँ?
मायबाये! तुम्हारी अथाह सहनशीलता की
पूरी हयात देनदार लगती है!


शब्दार्थ :
१ आज्जी, आज्जे – दादी
२ गावकुस से बाहर - गाँव से लग कर बसी बलूतेदारों की बस्ती
३ हिलाल - क्रांति की ज्योति
४ चान्या डल्ली - १२ बलुतेदारों (दलितों) में से एक जाति महार, जिनका काम है गाँव की गन्दगी साफ़ करना, मौत की ख़बर देना, मरे हुए पशुओं को गाँव से बाहर ले जाना आदि। ग़रीबी का हाल यह कि मरे हुए जानवरों कि बोटियाँ नमक में भिगो कर धूप में सुखाकर रखी जाती हैं जो बारिश के दिनों काम आतीं हैं। यही चान्या डल्ली कहलाता है। ये वफेर्स की तरह कुरकुरे होते, इसलिए यह खाना एक तरह से पकवान ही माना जाता है।
५ येस्करकी - घुंघरू लगा डंडा, जो बारी-बारी हर महार के घर जाता है। जिसके घर जाता है, उसे साल भर के लिए खाने-पीने और काम की कमी नहीं होती।
६ सरवा - धान काटने के बाद खेत में बचे डंठल।